अति विशिष्ट
रस्सी लट्ठों की बेड़ लगी
काफी कोलाहल दिखता था,
हर रस्ते में थी भीड़ बहुत
पर पत्ता एक ना हिलता था।
तरकारी का झोला टांगे
भैया जी कुछ आगे आए ,
धक्का मुक्की से जूझ रहे
भैया जी काफी झल्लाए।
कुछ दूर दरोगा को देखा
तब हाथ जोड़ कर प्रश्न किया,
पूछा, आखिर क्या बात हुई
किस कारण रस्ता बंद किया।
वह बोला “तू कैसा मूरख
क्या तुझको कुछ भी ज्ञान नही,
तेरी नज़रों में, क्या विशिष्ट
लोगों का कुछ सम्मान नही,
वह जो हम सब के मालिक हैं
उनकी खातिर प्रबंध किया,
तेरे नेता के स्वागत में
हमने यह रस्ता बंद किया।“
नेता जी की गाड़ी निकली
सारे जयकार लगाते थे,
लम्बी सी चकमक गाड़ी से
नेताजी हाथ हिलाते थे।
जब गई सवारी नेता की
तब जा कर थोड़ी राह खुली,
फिर हिला सिपाही का डंडा
तब धीरे-धीरे भीड़ चली।
उस अति विशिष्ट की सेवा में
घंटों धक्के मुक्के खाए,
खुब धूल पसीने में लथपथ
भैया जी वापस घर आए।
भैया जी काफी चिंतित थे
आखिर यह लोकतंत्र कैसा,
जो खुद जनता के सेवक हैं
उनकी खातिर प्रबंध कैसा।
भैया जी ने संकल्प किया
इसका उन्मूलन करना है,
कोई भी व्यक्ति विशिष्ट ना हो
ऐसा आंदोलन करना है।
अब रोज शाम को भैया जी
लोगों से मिलने जाते थे,
हर गली मोहल्ले, नुक्कड़ पर
अपने विचार फैलाते थे।
“चाहे नेता हो या अफसर
सब जनता के आधीन रहें,
क्यों हम इनको साहब बोलें
क्यों इनके खातिर कष्ट सहें।“
भैया जी ने ऐलान किया,
“ऐसा परिवर्तन लाना है,
नेता जनता में फर्क नही
सबको विश्वास दिलाना है।
क्यों नेता जी से मिलने पर
सारे प्रतिबंध लगे रहते,
क्यों अति विशिष्ट के आने पर
सब रस्ते बंद हुए रहते।“
सब भैया जी से सहमत थे
उनकी बातों का मान बढ़ा,
अब आसपास के लोगों में
भैया जी का सम्मान बढ़ा।
भैया जी लोगों को लेकर
सरकारी दफ्तर जाते थे,
रुतबे वाले साहब से मिल
अपना प्रतिरोध जताते थे।
कोई जलसा या सभा लगे
भैया जी आगे रहते थे,
तारीफ़ बहुत होती थी जब
वह अपनी बातें करते थे।
अब लोग पचासों, भैया जी
के आगे पीछे चलते थे,
यूं ख्याति बढ़ी भैया जी की
वह खुद नेता से दिखते थे।
सबने बोला भैया जी से
अगला चुनाव तुम लड़ जाओ,
भैया जी अपने सद्विचार
मंत्रालय तक लेकर जाओ।
आया चुनाव, तब भैया जी
ने अपना पर्चा डाल दिया,
जन प्रतिनिधि बनकर सत्ता के
रस्ते पर पहला पैर धरा।
संकल्प बद्ध थे भैया जी
ऐसा परिवर्तन लाऊँगा
जनता से जन प्रतिनिधियों का
सारा विच्छेद मिटाऊंगा ।
भैया जी जब दफ्तर पहुंचे
सब झुक कर अदब दिखाते थे,
बाबू, चपरासी या अफसर
सब आगे से हट जाते थे।
संग चलें अर्दली, भैया जी
जब गाड़ी से बाहर जाते,
जिस ओर निकलते थे, उनके
रस्ते निर्बाधित हो जाते।
अब सोच रहे थे भैया जी
मेरे कांधों पर भार बहुत,
जनसेवा की खातिर शायद
मुझको मिलते अधिकार बहुत।
यह सब मेरे श्रम का फल है
सम्मान मुझे जो मिलता है,
शासक शासित में कुछ अंतर
आपत्तिजनक ना दिखता है।
यूं ठाठ बाट का स्वाद लगा
बीते दिन याद ना करते थे,
नेता जनता में फर्क ना हो
अब ऐसी बात ना करते थे।
इस रोब दाब में भैया जी
के सद्विचार अवशेष हुए,
जनता से जन प्रतिनिधि बन कर
भैया जी स्वयं विशेष हुए।
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काव्य संग्रह -‘ज़िंदगी काफी है’