SULOCHANA VERMA “CHAAY” SERIES

    तुम्हारे बाद (क्षणिकाएँ) Poem by Sulochana Verma

    युवा कवयित्री सुलोचना वर्मा की “चाय” सीरिज की कविताएँ | सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत,विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित, बांग्ला से हिन्दी अनुवाद भी किए हैं|

    1. इन दिनों (चाय बागान)

    नहीं तोड़ती एक कलि दो पत्तियाँ
    कोई लक्ष्मी इनदिनों रतनपुर के बागीचे में
    अपनी नाजुक-नाजुक उँगलियों से
    और देख रहा है कोई जुगनू टेढ़ी आँखों से
    बागान बाबू को, लिए जुबान पर अशोभनीय शब्द

    सिंगार-मेज के वलयाकार आईने में
    उतर रही हैं जासूसी कहानियाँ बागान बाबू के घर
    दोपहर की निष्ठूर भाव -भंगिमाओं में

    नित्य रक्त रंजित हो रहा बागान
    दिखता है लोहित नदी के समान
    इन दिनों ब्रह्मपुत्र की लहरों में नहीं है कोई संगीत

    नहीं बजते मादल बागानों में इन दिनों
    और कोई नहीं गाता मर्मपीड़ित मानुष का गीत
    कि अब नहीं रहे भूपेन हजारिका
    रह गए हैं रूखे बेजान शब्द
    और खो गयी है घुंघरुओं की पुलकित झंकार

    श्रमिक कभी तरेरते आँख तो कभी फेंकते पत्थर
    जीवन के बचे-खुचे दिन प्रतिदिन कर रहे हैं नष्ट
    मासूम ज़िंदगियाँ उबल रही है लाल चाय की तरह
    जहाँ जिंदा रहना है कठिन और शेष अहर्निश कष्ट

    बाईपास की तरह ढ़लती है सांझ चाय बागान में
    पंछी गाते हैं बचे रहने का कहरवा मध्यम सुर में
    तेज तपने लगता है किशोरी कोकिला का ज्वर
    है जद्दोजहद बचा लेने की, देखिए बचता क्या है!

    2.मध्यरात्रि की चाय

    महकती हुई एक इलाइची रात जो है काली
    इलाइची के काले दानों के ही समान
    जगा जाती है मुझे देकर स्वप्निल संकेत डूबने का

    मैं बिसार कर नींद का उत्सव
    डालती हूँ इलाइची के कुछ दाने केतली में
    उबालती हूँ रात्रि को चाय की पत्तियों संग
    दूध डाल उजाला करती हूँ
    और छान लेती हूँ उम्मीदों की छन्नी से
    मध्यरात्रि की चाय, पोर्सलिन की प्याली में

    बह जाती है मेरी नींद अँधेरे में
    भूमध्यसागर में आहिस्ता-आहिस्ता

    लोग जो डूब जाने का उत्सव भूल
    चढ़ रहे हैं पहाड़ों पर
    क्या यह नहीं जानते कि ठीक से तैरना आता हो
    तो आप डूब कर ले सकते हैं स्वाद जीवन का

    3.चाय (1)

    आलस की सुबह को जगाने के क्रम में
    ठीक जिस वक़्त ले रहे हैं कुछ लोग
    अपनी अपनी पसंद वाली चाय की चुस्की
    उबल रही है कुछ जिंदगियां बिना दूध की चाय की तरह
    जो खौल खौल कर हो चुकी है इतनी कड़वी
    जिसे पीना तो दूर, जुबान पर रख पाना भी है नामुमकिन

    जहाँ ठन्डे पड़ चुके हैं घरों में चूल्हे
    धधक रही है  पेट की अंतड़ियों में
    भूख की अनवरत ज्वाला
    जो तब्दील कर रही है राख में इंसानियत आहिस्ता आहिस्ता
    जैसे कि त्वचा को शुष्क बनाती है चाय में मौजूद टैनिन चुपके से

    पहाड़ों के बीच सुन्दर वादियों में
    जहाँ तेजी से चाय की पत्तियाँ तोड़ते थे मजदूर
    दम तोड़ रही है इंसानियत झटके में हर पल
    चाय के बागानों के बंद होते दरवाजों पर

    बस उतनी ही बची है जिंदगी रतिया खरिया की
    जितनी बची रहती है चाय पी लेने के बाद प्याले में
    रख आई है गिरवी अपनी चाय सी निखरती रंगत सफीरा
    ब्याहे जाने से कुल चार दिन पहले बगान बाबू के घर
    उधर बेच आई है झुमुर अपने चार साल के बेटे को
    कि बची रहे उसकी जिंदगी में एक प्याली चाय बरसों

    बदला कुछ इस कदर माँ, माटी और मानुस का देश
    कि बेच आई माँ अपने ही कलेजे का टुकड़ा भूख के हाथों
    आती है चाय बगान की माटी से खून की बू खुशबू की जगह
    और मानुस का वहाँ होना रह गया दर्ज इतिहास के पन्नों पर !

    4.चाय (2)

    पतीले से भाप बन उठती चाय की खुशबू
    खोल देती है यादों का खजांचीखाना
    चाय में हौले – हौले घुलती मिठास
    दे देती है इक आस अनायास
    कि आओगे तुम एकदम अचानक
    बिन मौसम की बारिश की तरह
    और नहीं होगा जाया मेरा तनिक ऊंचाई से
    चाय छानने का संगीतमय लयबद्ध अभ्यास

    चाय की पहली चुस्की देती है जीभ को जुम्बिश मगर
    तुम्हारी अफ़्सुर्दगी का कसैलापन चाय पर तारी रहता है
    हर चुस्की पर हम देते तो हैं खूब तसल्ली दिल को अपने
    पर कमबख्त ये दिल है कि फिर भी भारी-भारी रहता है|

    5.चाय (3)

    चाय की पत्तियों की मानिंद महकती तुम्हारी यादें
    हैं प्रेम की पगडंडी पर उगी मेरी हरित चाहनाएँ
    अक्सर घुल जाता है मेरा चीनी सा अभिमान जिसमें
    और मैं बीनती रह जाती हूँ बीते हुए खूबसूरत लम्हें

    मानो घोषपुकुर बाईपास से दार्जिलिंग तक का सफर
    दौड़ता है स्मृतियों का घोड़ा चुस्की दर चुस्की कुछ ऐसे
    सिर्फ “ओलोंग” सुन लेने से बढ़ जाता है जायका चाय का
    मैं संज्ञा से सर्वनाम बन जाना चाहती हूँ अक्सर ठीक वैसे

    जिंदगी होती है महँगी मकाईबाड़ी के ओलोंग चाय की ही तरह
    काश यहाँ भी मिलती कुछ प्रतिशत छूट देते हैं जैसे बागान वाले
    शायद चढ़ चुका है हमारे मन के यंत्र पर चाय के टेनिन का रंग
    वरना सुन ही लेते पास से आ रही सदा हम निष्ठुर अभिमान वाले

    युवा कवयित्री सुलोचना वर्मा की “चाय” सीरिज की कविताएँ | सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत,विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित, बांग्ला से हिन्दी अनुवाद भी किए हैं|

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